BHU में थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों का ट्रांसप्लांट अटका, यह है कारण

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कर्मचारियों की कमी, लंबे समय से ट्रांसप्लांट का इंतजार कर रहे दस बच्चे

वाराणसी। बीएचयू हॉस्पिटल के बोन मैरो ट्रांसप्लांट एवं स्टेम सेल रिसर्च सेंटर में स्टाफ की कमी से थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों का ट्रांसप्लांट अटका है। दस बच्चे ऐसे हैं, जो लंबे समय से ट्रांसप्लांट का इंतजार कर रहे हैं। इसके लिए आईएमएस बीएचयू में भवन बनकर तैयार है। मशीनें लगी हैं। सारे उपकरण भी हैं, लेकिन स्टाफ की वजह से संचालन नहीं हो पा रहा है। एक बच्चे के ट्रांसप्लांट पर करीब 15-20 लाख रुपये खर्च होते हैं।

दुश्वारी से मरीज होते हैं परेशानी

बीएचयू ट्रॉमा सेंटर परिसर में बोन मैरो ट्रांसप्लांट एंड स्टेम सेल सेंटर बनवाया गया है। इसमें वाराणसी व आसपास के जिलों से आने वाले बच्चों का नियमानुसार ट्रांसप्लांट हो रहा है। इसी परिसर में सेंटर आफ एक्सीलेंस फॉर मैनेजमेंट आॅफ थैलेसीमिया एंड हीमोग्लोबिनोपैथी यूनिट भी है। इसके माध्यम से थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों की जांच व इलाज की व्यवस्था होती है। पूर्व कुलपति प्रो. राकेश भटनागर ने अपने कार्यकाल में ट्रांसप्लांट के लिए मशीनें मंगाई थीं, जो स्टाफ की कमी से नहीं चल सकीं।

सुनें प्रभारी की

प्रभारी प्रो. विनीता गुप्ता का कहना है कि सेंटर में वाराणसी के साथ ही आसपास के जिलों, झारखंड व बिहार आदि के कुल 284 बच्चे पंजीकृत हैं। बच्चों का खून नियमानुसार हर महीने बदला जाता है। दस बच्चे ऐसे हैं, जिनकी बीमारी ट्रांसप्लांट के बाद ठीक हो जाएगी। फिलहाल पांच बच्चों के ट्रांसप्लांट किए जाने की सभी औपचारिकताएं भी पूरी की जा चुकी हैं। स्टाफ मिल जाए तो ट्रांसप्लांट शुरू हो जाएगा। अभी तक यह सुविधा यूपी के एसजीपीजीआई लखनऊ में ही मिलती है।

भाई-बहन का मिलता है खून

प्रो. विनीता गुप्ता का कहना है कि थैलेसीमिया ग्रसित बच्चों का अगर ट्रांसप्लांट कर दिया जाए तो उनकी बीमारी खत्म हो जाती है। इसके पहले ब्लड मैचिंग (परिवार के सदस्यों से ब्लड ग्रुप की मैचिंग) कराई जाती है। आम तौर पर बच्चे को उसके भाई-बहन का ही खून मिल पाता है। समय-समय पर कैंप लगाकर ऐसे बच्चों की जांच भी कराई जाती है। इसे एचएलए यानी ह्यूमन लिकोसाइड एंटीजन कहा जाता है।

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