भामाशाह भारतीय जन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुजीत गुप्ता ने अपने इंटरव्यू में भाजपा पर किया कटाक्ष

आपने अपनी पार्टी का नाम किस सोच के साथ रखा और इसका गठन कब हुआ?
इसके दो कारण हैं, पहला- भामा और दूसरा शाह। भामा का मतलब सुंदर और शाह का मतलब सर्वश्रेष्ठ होता है। कुल मिलाकर ‘भामाशाह भारतीय जन पार्टी’ रखा गया। सामाजिक कार्य करते हुए जनवरी 2021 में मैंने भामाशाह भारतीय जन पार्टी का गठन किया।
आपकी पार्टी से कितने लोग जुड़े हैं?
हमारी पास छह जनपदों की कमेटी है- वाराणसी, चंदौली, मीरजापुर, गाजीपुर, बलिया और कानपुर।
कानपुर क्यों?
इसका एक कारण की पूर्वांचल से अगर एक राष्ट्रीय अध्यक्ष है तो पश्चिमांचल से पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष होना चाहिए।
भाजपा इस समय धर्म और विकास दोनों एक तराजू पर लेकर चल रही है। कभी दोनों ऊपर-नीचे हो जाते हैं, इस स्थिति को क्या आपकी पार्टी बैलेंस रख पाएगी?

जहाँ तक मैं जानता हूँ, जब भाजपा का गठन हुआ था तो उस समय उनके पास धर्म का कोई मुद्दा नहीं था। 90 के दशक में यानी जब राममंदिर का मुद्दा उठा तब भाजपा ने इसी को मुद्दा बनाकर धर्म की राजनीति कर रही है। मेरे हिसाब से राजनीति में धर्म को नहीं लाना चाहिए। मैं एक उदाहरण देता हूँ- अगर किसी के घर पर धार्मिक अनुष्ठान होता है। अगग वहाँ विभिन्न राजनैतिक दलों के लोग उपस्थित होते हैं और अपने-अपने पार्टी की बातें करने लगते हैं तो उन्हें पुरोहित मना करते हैं, यह कहकर कि यहाँ धार्मिक काम चल रही है। इससे आप सोच सकते हैं कि जब एक व्यक्ति अपने धर्म में राजनीति को नहीं लाना चाहता है तो भाजपा ने तो इसका उल्टा ही कर दिया है। वह राजनीति में धर्म लेकर चली आई है। राजनीतिक का काम राष्ट्रहित और विकास है। देश में रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा सहित अन्य बुनियादी चीजों पर बातचीत होनी चाहिए।
आपके हिसाब से नौकरी, महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे आज भी हैं?
बिल्कुल है।
2007 में मायावती ने 206 सीटों पर जीत हासिल की और 2012 में अखिलेश ने 224 सीटों पर जीत हासिल की। आखिर ऐसा क्या कारण था कि 2017 में भाजपा ने 312 सीटों पर कब्जा कर लिया। काम तो लगभग दोनों पार्टियों ने किया था।
कारण यह कि उस समय बसपा प्रगति पर पथ पर थी। उस समय बसपा ने एक नारा दिया था- तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जुते चार। यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया को लेकर बसपा की ऐसी सोच थी। इस नारे को लेकर बसपा ने अपना पैठ बनाने की कोशिश की लेकिन जब असफल हो गए तो दूसरा दाँव शुरू हो गया। अब तीनों जातियों को अपने साथ मिलाने का काम शुरू हुआ और नारा दिया गया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। अब सोचिए ये किस तरह की राजनीति है। एक बार गालियाँ दी फिर पूजा की जा रही है। आज भारत को विश्वगुरु की उपाधि दी जा रही है ये किस आधार पर समझ ही नहीं आता- धार्मिक या विकास पर। आपका पेट भरा हो तो धर्म के साथ पूजा-पाठ भी अच्छे लगते हैं। अब यह कहा जा रहा है कि पहले धर्म उसके बाद अन्य। मैं नहीं मानता। मैं भी एक सनातनी हूँ लेकिन मेरी नज़र में पहले शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार जैसे मुद्दे हैं। घर सम्पन्न होगा तो जिला सम्पन्न रहेगा, जिला सम्पन्न होगा तो राज्य सम्पन्न रहेगा, राज्य सम्पन्न होगा तो देश सम्पन्न हो जाएगा। देश सम्पन्न हो गया तो आस्था भी अच्छी लगेगी।
भाजपा के अमित शाह और सपा के अखिलेश यादव इस बार तमाम छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ रहे हैं। इसको आप भाजपा का विवशता देखते हैं या अखिलेश यादव की चिंता?
देखिए यहाँ अखिलेश यादव के चिंता का कोई विषय नहीं है। अब तो भाजपा खुद डरी और सहमी हुई है। उसका कारण है कि 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो हिटलरशाही, तानाशही, महंगाई, बेरोजगारी, पूरे कोरोनाकाल में अव्यवस्थाएँ, गंगा में लाशें, रेती में दफनाएँ लाश, वेंटिलेटर और Oxygen की कमी, उसी दरमियान चुनावी जनसभाएँ करना ये ठीक नहीं था। बीते कोरोनाकाल में ही बंगाल चुनाव और पंचायत चुनाव हुए। जनता के लिए कोरोना और भाजपा के लिए अवसर! बीजेपी ने हमेशा चुनाव को ही महत्व दिया है। उस चुनाव और जनसभाओं पर रोक लगा देना चाहिए था। न जाने कितने और लोगों की जान बच जाती। इस समय में को जनता ने बखूबी महसूस किया है और बीजेपी जानती है कि हमसे गलतियाँ हुई हैं। इसलिए डर और निराश उनके खेमे मे ही है। सत्ता में रहने वाले लोगों से ही सवाल किया जाता है। इसी सरकार में छात्रों के ऊपर काफी लाठीचार्ज हुए हैं जबकि हक माँगना हमारा संवैधानिक अधिकार है। छात्रों के साथ गहरी राजनीति हुई है। जनता की आवाज को पुलिस की लाठी से दबाने का काम भी भाजपा ने किया है। 59 हजार शिक्षक भर्ती में भी भाजपा ने खेल कर दिया है। अब लोगों में अपने आसपास के माहौल को समझने की क्षमता बढ़ गई है। भाजपा को जनता ने जितनी बार मौका दिया है वह खरा नहीं उतर पाई है। 2022 में कुछ अलग होने वाला है। जनता त्रस्त है और बदलाव चाहती है। अखिलेश की कोई मजबूरी नहीं है। इस बार भागीदारी संकल्प मोर्चा में विभिन्न दल के लोग शामिल हैं, जो आज भी अखिलेश यादव का साथ दे रहा है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भी इस बार जोश के साथ उनके साथ है।
ओमप्रकाश राजभर सौ सीटों पर अपना दावा रखते हैं। ये किस समीकरण पर मान लिया जाए। धार्मिक या जातिवाद के आधार पर?

ओमप्रकाश राजभर के कहने का मतलब था कि यूपी में दो चरण के चुनाव के बाद ही हम सौ सीटें जीत चुके होंगे। उनका कहना है कि चौथा चरण यानी लखनऊ का चुनाव होते-होते हम पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेंगे। हम कहीं न कहीं मानते हैं कि भाजपा सरकार में छात्रों के ऊपर वॉटर कैनन डाला गया वह भी ठंड के मौसम में तो इससे भी एक आक्रोश ही बना है। पब्लिक का सपा और गठबंधन पर विश्वास बन रहा है। ओमप्रकाश पिछड़ों के हक और अधिकारों की बात को लेकर चल रहे हैं, इसी का असर जनता पर हो रहा है। इस समीकरण को धार्मिक और जातिवाद के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। मुद्दा विकास का होना चाहिए न कि धर्म का। विकास का पानी गिरे तो सभी वर्ग को मिले।
नामांकन के दौरान ओमप्रकाश राजभर और उनके बेटे के खिलाफ नारे लगे क्यों?
कचहरी में नामांकन के समय मैं भी मौजूद था। वहाँ कुछ अधिवक्ताओं ने जय श्रीराम का नारा लगाने लगे। सुभासपा नेता के साथ जब हम पीठासीन अधिकारी के पास पहुँचे तो बाहर धीरे-धीरे माहौल गर्म होने लगा। मौके पर सपा, सुभासपा और बीबीजेपी के कार्यकर्ता भी मौजूद थे। दूसरी तरफ अधिवक्ताओं को पैनल मौजूद था। विरोधी नारा लगाकर अधिवक्ताओं ने अपने ही समाज को बदनाम किया है। वहाँ जय श्रीराम के नारे लगाए गए, राजनीति में ये कौन-सा विरोध होता है। अधिवक्ताओं को विरोध करना ही था तो किसी और तरीके से किए होते ऐसा कर उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का ही नाम खराब किया है। विरोध संवैधानिक अधिकार है लेकिन भगवान बीच में नहीं आने चाहिए। वहाँ गालियाँ भी दी गई, उसका वीडियो भी है। राजभर ने कहा कि काले कोट के अंदर भाजपा के गुंडे मौजूद थे। पुलिस भी मूकदर्शक बनकर खड़ी थी। ऐसा नहीं कि अफसरों ने संज्ञान नहीं लिया। ओमप्रकाश राजभर को सुरक्षा भी नहीं दी गई। सबसे बड़ी बात कि बैरिकेटिंग होने के बावजूद मौके पर इतने अधिवक्ता कहाँ से आ गए। यह माहौल खराब करने की कोशिश की जा रही थी। दूसरे दिन स्टाम्प मंत्री रविंद्र जायसवाल जब नामांकन करने गए तो उनका भी विरोध हुआ लेकिन उसका तरीका अलग था। गो-बैक रविंद्र जायसवाल कहा गया लेकिन उन्हें तो गालियाँ नहीं दी गर्इं। इससे ये साबित होता है कि यह विरोध ‘मैनेज’ था।