सात साल बाद दोबारा साथ में थी छड़ी फिर भी लड़खड़ा गया कमल

शेयर करे

आजमगढ़ (सृष्टिमीडिया)। एक बार फिर यह तय हो गया कि आजमगढ़ के परिप्रेक्ष्य में सुभासपा के साथ का कोई मतलब नहीं है।
लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने ओमप्रकाश राजभर और जिले के गेलवारा गांव के रहने वाला दारा सिंह चौहान को मंत्री बनाकर भले ही पूर्वांचल को साधने का सपना देखा हो, लेकिन लोकसभा चुनाव में उसका सपना धड़ाम हो गया। यहां तक कि वर्ष 2019 के मुकाबले वोट बढ़ने की बजाय और कम हो गए। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में ओमप्रकाश ने भाजपा से दूरी बना ली थी। वर्ष 2017 के विधानभा चुनाव में ओमप्रकाश भाजपा के साथ थे, लेकिन फूलपुर-पवई सीट को छोड़ भाजपा विजय से कोसों दूर रही। वहां से अरुण यादव की जीत को लोग भाजपा नहीं, बल्कि अरुण के पिता रमाकांत यादव की लोकप्रियता का परिणाम मानते हैं।
वर्ष 2022 में ओमप्रकाश सपा के साथ आए, तो सपा ने सभी विधानसभा सीटों पर कब्जा तो कर लिया, लेकिन उसके लिए यह कोई नई बात नहीं रही। 2017 में सपा ने पांच तो बसपा ने चार सीटों पर कब्जा जमाया था। उससे पहले को देखें तो सपा ने 2012 में अकेले दम पर 10 में से नौ विधानसभा सीटों में पर कब्जा जमाया था। 2022 में अगर मुबारकपुर की 10वीं सीट सपा के खाते में गई तो शायद ओमप्रकाश के कारण नहीं, बल्कि दो बार के विधायक शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को बसपा का टिकट न मिलना कारण माना गया।
अब गौर करें आजमगढ़ और मऊ में हुए उपचुनावों पर तो तीनों उपचुनाव में ओमप्रकाश का साथ सपा और भाजपा को नुकसान ही पहुंचाई। शुरुआत करते हैं वर्ष 2008 में आजमगढ़ लोकसभा के चुनाव परिणाम पर, तो उस समय सपा से नजदीकियों के कारण जब रमाकांत यादव की बसपा ने सदस्यता समाप्त करा दी थी, तो उपचुनाव की घोषणा की गई। रमाकांत को उम्मीद थी कि सपा उन्हें निकटता का लाभ देगी, लेकिन सपा ने उन्हें किनारे करके कई बार के विधायक और मंत्री रहे बलराम यादव को सपा ने मैदान में उतार दिया, तो रमाकांत ने भाजपा का दामन थाम लिया था। रमाकांत की ताकत का अंदाजा चूंकि सपा को भी था, सो उसने ओमप्रकाश राजभर की मदद ली, लेकिन परिणाम आया, तो पता चला कि छड़ी का जादू नहीं चला और बलराम यादव जैसे कद्दावर नेता तीसरे स्थान पर चले गए। तब बसपा के अकबर अहमद डंपी ने बसपा के विजय रथ को बरकरार रखा। बसपा और सपा में जीत का अंतर 69176 वोटों का रहा, जबकि भाजपा के रमाकांत यादव रनर बन गए।
वर्ष 2022 के उपचुनाव में भी वही हुआ, जो सीट सपा के अखिलेश यादव 2019 में ढाई लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से जीते थे उसे उनके भाई धर्मेंद्र यादव 8679 वोटों से हार गए, जबकि शुरू से अंत तक ओमप्रकाश राजभर क्षेत्र में सक्रिय रहे। चुनाव हारने के बाद दोनों पार्टियों के बीच उस समय तल्खी बढ़ने लगी जब ओमप्रकाश ने अखिलेश के प्रचार में न आने को हार का कारण बताना शुरू किया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच वह समय भी आया जब ओप्रकाश राजभर ने फिर भाजपा का साथ पकड़ लिया और मंत्री भी बन गए हैं।
भाजपा का साथ पकड़ने के बाद ओप्रकाश को घोसी विधानसभा के उपचुनाव में सपा से भाजपा में गए दारा सिंह चौहान को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी गई, लेकिन उस उपचुनाव में उनके सारे दावे धड़ाम हो गए।
अब जिले में राजभर मतदाताओं की संख्या पर गौर करें, तो आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में उनकी संख्या महज 1.6 फीसद, तो लालगंज (सुरक्षित) क्षेत्र में छह फीसद है। अब वहां पर ओपी के प्रभाव का असर कोई खास नहीं दिखता, क्योंकि लालगंज क्षेत्र में समाहित दीदारगंज क्षेत्र से कभी पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर बसपा तो उनके बाद उनके पुत्र कमलाकांत राजभर सपा के टिकट पर विधायक हैं। जाहिर सी बात है कि क्षेत्र के लोग सुखदेव के परिवार की बात को ज्यादा तवज्जों देते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2012 के पहले सामान्य रही लालगंज सीट से सुखदेव राजभर कई बार विधायक चुने गए, तो लालगंज सीट सुरक्षित होने के बाद दीदारगंज विधानसभा सीट के लिए दो बार हुए चुनाव में 2017 में एक बार विधायक चुने गए थे। एक बार फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में ओप्रकाश भाजपा के साथ थे, लेकिन उनकी छड़ी जिले की दोनों सीटों पर भाजपा का सहारा नहीं बन सकी। कुल मिलाकर ओमप्रकाश की छड़ी का जादू आजमगढ़ में नहीं दिख सका।
रिपोर्ट-सुबास लाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *