मार्टिनगंज आजमगढ़ (सृष्टिमीडिया)। भारत विविधता का देश है। यहां की अनूठी लोक परंपराएं ही इसकी पहचान है। साल के हर महीने की अलग विशेषता है, जिसमें सावन को लोक साहित्य में हरियाली का प्रतीक माना गया है। लेकिन आधुनिकीकरण की दौड़ में लोकगीत की धरोहर सावन का गीत कजरी व ग्रामीण युवकों का खेल चिक्का की छलांग गांव से गायब हो गई है। युवतियां जहां पाश्चात्य व चित्रपट के गानों को गुनगुना रही हैं, तो युवक वीडियो व मोबाइल गेम में उलझे दिखाई दे रहे हैं। अब यह परंपरा नागपंचमी जैसे मौके पर भी औपचारिकता मात्र रह गई है। न तो बाग-बगीचा में पेड़ों की टहनी में झूला झूलते लोग दिख रहे हैं, न घरों में। जबकि चिक्का व दंगल स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से सबसे अहम माना जाता है। एक समय ऐसा था, जब चिक्का व कुश्ती बच्चा हो या युवा या फिर बूढ़े, बरसात के मौसम में उनकी दिनचर्या में रहती थी। वे थोड़ा-बहुत समय निकाल अखाड़ों व चिक्का के पास जरूर जाते थे। बहरहाल पहलवानी लोगों की शौक होती थी। लेकिन अब इससे हर कोई विमुख होने लगा है।
झूला पड़े कदम की डारी, झूले कृष्ण मुरारी ना. गीत से झूला के साथ कृष्ण व राधा के प्रेम, तो कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया बदरिया घिर आए ननदी में, सावन की छटा का बखान करने वाली लोक गीत कजरी अब कहीं सुनने को नही मिल रही। उसकी जगह अब पाश्चात्य व अश्लील गीत श्रृंखला में सुनने को मिल रहे हैं।
रिपोर्ट-अद्याप्रसाद तिवारी